सीने में बसर करता है ख़ुशबू सा कोई शख़्स,
फूलों सा कभी और कभी चाकू सा कोई शख़्स।
पहले तो सुलगता है वो लोबान के जैसे,
फिर मुझमें बिखर जाता है ख़ुशबू सा कोई शख़्स।
ग़ज़लों की बदौलत ही तो वो मुझमें बसा है
सरमाया ऐ हस्ती है वो उर्दू सा कोई शख़्स।
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